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जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हिमालय पर सबसे ज्यादा…संजय राणा 

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जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हिमालय पर सबसे ज्यादा…संजय राणा 

हिमालय में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और आपदा पर एक अध्ययन यात्रा के अंतर्गत 8 दिनों के दौरान यमनोत्री घाटी, गंगोत्री घाटी और बूढ़ा केदार घाटी में सैकड़ों लोगों से बात करने पर चौंकाने वाले तथ्य सामने आए, इन तथ्यों का समाज और सरकारें अगर गंभीरता पूर्वक आंकलन कर तो आने वाला समय हिमालय और उससे जुड़े मैदानी क्षेत्रों के लिये भयानक त्रासदियों से भरा होने वाला है।
यात्रा के दौरान अलग-अलग उम्र के लोगों से बात की गई जिसका संक्षिप्त सार निम्न है:-
*जहां 10 से 16 फुट बर्फ गिरा करती थी वहां पिछले 10 वर्षों में इसके अंदर 50 से 60 प्रतिशत की भरी कमी आई है।
यमनोत्री घाटी में यह आंकड़ा 16 फुट से घट कर मात्र 6 फुट रह गई है।
यमनोत्री घाटी में हर्षिल, मुखबा, सुक्खी, झाला आदि गांवों में 8 फूट से घट कर यह मात्र 3 फुट ही रह गई है।
बूढ़ा केदार में तो और भी बुरे हालत है वहां से तो बर्फ लगभग खत्म ही हो चुकी है।

*सभी जगहों पर यही बताया कि जहां कभी जीवन में लोगों ने पंखे नहीं देखे थे वहां अबकी बार 30 से 36 डिग्री तापमान दर्ज करते हुवे पंखों का इस्तेमाल प्रारंभ हो चुका है।
*बर्फ और ठंड ना होने के कारण उत्तराखंड की पारंपरिक फसलों पर बेहद बुरा प्रभाव होने लगा है, जहां कभी 1 किलो बीज से लोग 1 क्विंटल तक उत्पादन लिया करते थे, वह मात्र 15 से 20 किलो उत्पादन पर ही रह गया है। यह प्रभाव यहां होने वाले अखरोट, सेब, राजमा, आलू आदि सभी फसलों पर देखने को मिल रहा है। यहां के लोग रसायन मुक्त खेती से रसायन युक्त खेती पर आने को मजबूर हुए है 

*तीनों ही घाटियों की नदियों का तल असामान्य रूप से बढ़ा हुआ देखने को मिला, स्थानीय लोगों के अनुसार इसके तीन मुख्य कारण है:-
1 पहाड़ों का बर्फ विहीन होना, हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएं जब बर्फ विहीन होती है तो वर्षाऋतु में मिट्टी कटान तेज होता है। को संघटित रखने का कार्य करती है जिस प्रकार पेड़ पहाड़ो को जकड़ कर रखते है।
2 हिमालय में प्रतिवर्ष लगने वाली आग और अवैध वन कटान पहाड़ों को वन विहीन बनाती जा रही है जिस वजह से बरसात के मौसम में श्रृंखलाओं में कटान तेजी से होता है।
3 सरकारों द्वारा सड़कों के चौड़ीकरण के दौरान पहाड़ों को काट कर उसके मलवे को नदियों में धकेला जाना।
उपरोक्त कारणों से हिमालय की नदी और नालों में यह मालवा असामान्य रूप से बढ़ रहा है जिससे वहां से स्थानीय गांवों पर अस्तित्व का संकट छाने लगा है।

*बंदर पूंछ ग्लेशियर जिससे मां यमुना, गौमुख ग्लेशियर जिससे मां भागीरथी या गंगा और सहस्रताल ग्लेशियर जिससे बाल गंगा, धर्म गंगा और भिलंगना नदी (ये तीनों नदी गंगा की सहायक नदी है) निकलती है वे सभी तकरीबन 20 से 30 किलोमीटर तक पीछे जा चुके हैं अर्थात मां गंगा और यमुना नदियों को जीवन देने वाले ग्लेशियर ही खत्म हो जाएंगे तब इन नदियों का अस्तित्व कैसे रह पायेगा।
हिमालयन रिवर्स का आधार ही ग्लेशियर्स है और वहां बर्फ पड़ना लगभग खत्म सा ही हो गया हो तो इन स्थितियों में उत्तर भारत में पानी की कमी होना स्वाभाविक स्थिति है।

*वर्षा का अनियमित होना और रूप बदलना हिमालय के लिए अभिशाप बन गया है, पहले हिमालय में मंद गति से वर्षा हुआ करती थी मगर पिछले 10 वर्षों से इसके ढंग में बदलाव आया है अब बादल फटने की घटनाओं में निरंतर तेजी आई है जिससे नदियों में पहाड़ों के मलवे और पानी के स्तर में असामान्य रूप से बढ़ोतरी के कारण जहां फसलों को अधिक नुकसान होता है वहीं गांवों के अस्तित्व पर भी खतरा रहता है। विगत वर्षों में हिमालय में जान और माल के नुकसान में बढ़ोतरी हुई है।

*हिमालय पर जहां वैश्विक जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है वहीं वहां प्रतिवर्ष जाने वाले पर्यटकों की भी हिस्सेदारी है। पर्यटकों ने तो हिमालय को जैसे कूड़ादान ही समझ लिया है, बड़ी संख्या में लोग प्लास्टिक की बोतल, चिप्स के पैकेट, पालीथीन, पहनने के कपड़े आदि सब नदियों में स्वाह कर अपने को पाप मुक्त करते है।
यमुनोत्री और गंगोत्री के पुरोहितों से जब सवाल किया गया कि यह कौनसी प्रथा है कि लोग स्नान करने के बाद अपने कपड़ों को वहीं छोड़ जाते है तो उनका जवाब यह था कि हिन्दू संस्कृति में ऐसी कोई प्रथा है ही नहीं, उनके अनुसार यात्रियों को मना भी किया जाता है परंतु लोग मानने को तैयार नहीं।
वाह क्या गजब की बात है कि लोग गंदगी फैला कर खुद मोक्ष प्राप्त करना चाहते है। मानव को नदियों में स्नान करने से पहले यह विचार करना चाहिए कि क्या वह इतना स्वच्छ है कि नदियों में स्नान कर सके। जवाब शायद नहीं में ही आयेगा।
जिस प्रकार हिमालय के गांवों से बहने वाली नदियों और नौलों के बावजूद पीने के पानी की समस्या देखने को मिली वह सोचने को मजबूर करती है कि काश यह स्थिति जिस दिन गंगा-यमुना दोआबा क्षेत्र में आयेगी तो यहां अवश्य ही यह मानवीय संघर्ष में तब्दील होगा। हिमपात और ठंड में कमी होने के कारण हिमालय के जलस्रोत सूखते जा रहे हैं, स्थानीय निवासियों ने बताया कि यहां मार्च से लेकर जुलाई तक पीने के पानी का संकट रहता है।
क्या गजब विडंबना है कि अब तक हिमालय सब की प्यास बुझाने का कार्य कर रहा है वहीं उसकी गोद में रहने वाले लोग प्यासे रहते है वहीं दूसरी तरफ हिमालय से कोसों दूर रहने वाले लोग पानी की कद्र करना ही नहीं जानते, पानी का बेहताशा दोहन करने के बावजूद समस्या को समझने को तैयार ही नहीं। पानी के दोहन के लिए अगर मना किया जाए तो रटा रटाया जवाब सुनने को मिलता है कि “हमारा मोटर, बिजली का बिल भी हमारा तो तुम्हें क्या आपत्ति है”
एक तरफ हिमालय पर हिमपात की कमी वहीं दूसरी तरफ मैदानी क्षेत्रों में नदियों को दूषित करना बराबर गति से जारी है, यही दो कारण मानव जाति के लिए काफी होंगे नष्ट करने को। समाज और व्यवस्थाएं दोनों मस्त है अपनी-अपनी मस्ती में, समाज और व्यवस्थाएं आज में जीना चाहती है, संकट द्वार पर दस्तक दे रहा है, यह संकट आने वाली पीढ़ियों को परेशान करेगा तब पीढ़ियां आज के समाज और व्यवस्थाओं को माफ नहीं करेगी।

आओ प्रकृति की ओर लौटे।

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गोदावरी शुक्राचार्य

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